इक परछाई है धुंधली सी
ख्वाबों में मेरे रोज़ वो आती है।
हकीक़त न सही सपनों में ही
बेचैन इस दिल को चैन-ओ-सुकून दे जाती है।
न जाने कितने जन्मों से
उस परछाई को मैं ढूँढ रहा हूँ।
उसकी इक झलक पाने को
रोज़ मैं आँखें मूँद रहा हूँ।
अधुरी सी थी मेरी ज़िन्दगी
फिर एक दिन तुम आयी।
ढूँढली थी जो सदियों से
साफ़ दिखने लगी वो परछाई।
बहुत कुछ था कहना तुमसे
पर तुम मेरी बातें सुनती ही नहीं हो।
इन आबिदो की भीड़ में
तुम कभी मुझे चुनती ही नहीं हो।
सब जानता हूँ मैं की
तुम भी सब जानती हो।
सब जानते हुए भी
क्यू तुम मुझे अपना नहीं मानती हो?
जो साफ़ दिखने लगी थी
वापस धुंधली हो गयी वो परछाई।
तुम नहीं थीं उसके पीछे
जान चूका हूँ मैं ये सच्चाई।
चलो कोई नहीं, कुछ रातें और आँखे मूंद लूँगा।
हकीक़त न सही, सपनों में ही मैं तुम्हें ढूँढ लूँगा॥
~वि
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